Friday, June 17, 2011

पेड़ नहीं कट रहे हैं


वरिष्ठ बाल साहित्यकार देवेन्द्र कुमार
का चर्चित बाल उपन्यास:पेड़ नहीं कट रहे हैं



आकाश की काली चादर पर सितारे चमक रहे थे. हवा चुप थी, पेड़ों के पत्तेसो रहे थे, घोंसलों में परिंदे आराम की नींद में थे. सड़क पर चौकीदार की लाठी खट-खट करती घूम रही थी, कभी-कभी सीटी की आवाज गूँज उठती. सड़क के एक तरफ कोथियन थीं, दूसरी तरफ पुराणी इमारतों में कई दफ्तर थे. दिन में यहाँ खूब चहल-पहल रहती, इस समय सन्नाटा था.

लेकिन पेड़ के नीचे ज़मीन पर लेते जानू को नींद नहीं आ रही थी. रह-रहकर एक ही विचार मन में उभरता था. सुबह होते ही उसका पुराना दोस्त, गर्मी-सर्दी-बरसात में उसके सिर पर छाया करने वाला एक पेड़ काट लिया जाएगा.

हाँ, अब इस बात में कोई संदेह नहीं था. चौराहे पर खड़े होने वाले सिपाही ने यही बताया था. चौराहे पर खड़े होने वाले सिपाही ने यही बताया था. पेड़ के नीचे चाय की दूकान चलाने वाले भीमसिंह ने भी यही कहा था. दूसरे लोगों की भी यही राय थी कि पेड़ अब एक-दो दिन का ही मेहमान है. और अब तो किसी के बताने की भी जरूरत नहीं रह गई थी. जानू कई दिनों से देख रहा था-पेड़ की ठीक सीध में काली, चमकीली सड़क बंटी चली आ रही थी.

पुरानी सड़क ऊबड़-खाबाद थी, बरसात में जगह जगह गड्ढे हो गए थे. इसलिए डामर की नई सड़क उसकी आँखों को अच्छी लगी थी. सड़क चौड़ी की जा रही थी. एक दिन जानू ने काम करने वाले मजदूरों को कहते सुना था -" पेड़ नहीं काटा तो सड़क सीधी नहीं बन सकेगी."

सुनकर जानू सन्न रह गया था. एकाएक अपने कानों पर भरोसा नहीं हुआ था. वह सबसे पूछता फिर था. यह देखकर तो उसे और भी दुख हुआ कि किसी को पेड़ की चिंता नहीं है. सब कह रहे थे -"सीधी सड़क बनाने के लिए पेड़ तो काटना ही होगा." धीरे-धीरे वह पेड़ पर बसेरा करनेवाले हर पंची की आवाज से परिचित हो गया था. किसी को पेड़ के चिंता होती भी क्यों? उस पेड़ से किसी को क्या लेना-देना था. पेड़ तो केवल जानू का था. जैसे जानू सिर्फ पेड़ का था. यह तो जानू को ही पता था कि रात को सबके सो जाने के बाद पेड़ उससे कैसे बातें करता है. धीरे-धीरे वह पेड़ पर बसेरा करनेवाले हर पंची की आवाज से परिचित हो गया था.

कई वर्षों से पेड़ के नीचे ही जानू का घर था. उसकी हर रात पेड़ की घनी छाया में बीतती थी. हाँ, दिन में जरूर पराई हो जाती थी वह जगह. सुबह उसके उठते ही भीम सिंह चैवाला अपनी दूकान जमा लेता था. उसकी अंगीठी से खूब धुआं उड़ता. चाय पीनेवाले भी शोरगुल करते. एक पानवाला भी आ बैठता था. लेकिन फिर भी पेड़ को दूर से देखकर ही जानू के बारे में पता चल सकता था. पेड़ की एक नीची डाल पर जानू अपना ठेला लटकाता था. उसमे रहते थे-सड़क से बीने गया कागज़, इधर-उधर मिले लोहे के टुकड़े और खाली बोतलें. हर रविवार वह ठेले के चीजें नल बजार्वाले कबाड़ी को सौंप देता था. हाँ, रंगीन तस्वीरें जरूर अपने लिए बच लेता था जानू. उसके पास काफी तस्वीरें इकट्ठी हो गई थीं. कुछ फूलों की थीं, एक-दो फिल्मों की और एक चित्र भगवान जे का था. उन चित्रों को लपेटकर डोरी के सहारे पेड़ स लटका दिया गया था. कुछ ऊपर, पत्तों के बीच वह अपने कपड़ों का बण्डल रखता था. नहाकर वही पहन लेता था.

जानू ग्यारह या बारह वर्ष का हो गया था. उसकी उम्र का हिसाब चौकीदार चाचा ने लगाया था, जानू को खुद कुछ मालूम नही था इस बारे में. सुबह-सुबह जानू बस्ती की तरफ निकल जाता था.वोझा ढोने का या कोई और काम मिल जाता तो कर लेता, नहीं तो आने-जानेवाले बाबू लोगों से कुछ मांग लेता. सड़क के एक ओर बनी कोथिओं में कारवाले साहब लोग रहते थे. उनके अंदर घुसने कि हिम्मत कभी नहीं जुटा सका था वह. बस्ती में जाते समय भीम सिंह चायवाले को सामान के ध्यान रखने के लिए कह जाता था. इस पर भीम सिंह खिलखिलाते हुए कहता था ; "बेफिक्र होकर जाओ. चोर तो चोर, चिडिया को भी नहीं फटकने दूंगा."

दिन में परिंदे सचमुच नहीं आते थे पेड़ के पास. पंछी सुबह-सुबह उड़ जाने के बाद दिन ढाले ही लौटते हैं.

कल के बाद ये परिंदे कहाँ रहेंगे-लेटा लेटा यही सोच रहा था जानू. इन बेचारों को क्या पता कि कल सुबह दाने की खोज में उड़ जाने के बाद पेड़ काटने वाले आ पहुंचेंगे. और शाम को जब वे थककर अपने घोंसलों की तरफ लौटेंगे तो..तो..

यही सोचते-सोचते जानू सिसक उठा. पता नहीं कितनी देर तक आंसू बहते रहे. आंसू अपने लिए थे, या कल बेघर हो जानेवाले परिंदों के वास्ते या अपने दोस्त पेड़ के कट जाने का दुःख था, यह जानू को खुद पता नहीं था और आंसू थे कि बहते जा रहे थे.

हाँ, जानूं एक अकेला लड़का था. आवारा, अनाथ, बेसहारा- लोग जो जी में आता उसे कहते थे. वह कौन था, कहाँ से आया, इस बारे में कोई नहीं जानता था. सड़क के कोने वाले बंगले का चौकीदार, जो चौकीदार चाचा के नाम से मशहूर था, कई साल पुरानी घटना इस तरह बताता है- जारी.........